Sunday 4 July 2010

क्या हम देश समझते हैं...


मूलत: मुद्दा वहीं अटका है कि हम जब जीते हैं तो ७०% याद रह्ता है या ३०% याद रहता है। जु़बान का क्या-हिली और अपनी सोच उगल दी...सोच तो सारा देश उगल रहा है..जैसे अभी मैं।अब कुछ प्रश्न १- हम बदलना क्या चाहते हैं..और बदल कर लाना क्या चाहते हैं...और जो बदल कर आयेगा, क्या हम उसकी योग्यता रखते हैं।प्रश्न२ - हमारे देश की कल्पना क्या की गई है...२५ साल बाद हमारा देश कैसा होगा...तो क्या अभी वैसा है जिसके आधार पर हम वहाँ पहुँच सकें...प्र्श्न३ - आर्थिक निति किसके आधार पर है...अगर ८.५% का विकास है सालाना, तो दाल १०० रुपये किलो क्यूँ...प्रश्न४ - बदलाव की प्रक्रिया का चरम हम सब जानते हैं क्या उसके लिये हम तैयार हैं...क्या हम देश के लिये जीने को तैयार हैं...क्या देश की समझ हमारे अंदर है....अगर है तो, बहस क्यूँ...क्या हम सब अपनी-अपनी तरह से देश बदलना चाहते हैं...प्रश्न५ - क्या हम सिनेमा बनाना जानते हैं....समझते हैं....देखते हैं...प्रश्न बहुत हैं...जाने दें।
(सोच या विचार दिमाग में पैदा होता है,दिमाग सिर में होता है,सिर ज़मीन पर नही उतरता है।ज़मीन का सीधा संबंध हाथ और पावँ से होता है,सोच या विचार का उससे कोई संबंध नही होता,इसीलिये विचार, पूरे देश में, अर्धसत्य की तरह भटक रहा है।आईये अपनी सोच को हाथ और पावँ दें)


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