Saturday 27 August 2011


हम अपने आचरण में कोई बदलाव नही लाना चाहते...
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कि मुद्दा तो स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार का अंत होना चाहिये और उसकी मुहिम में साथ भी देना चाहिये और इस तहत हमें साथ होना चाहिये ऐसा दिल कहता है,पर दिमाग़ का क्या करुँ वो कई सवालों का जवाब माँगता है और वो मिलता नही।मैं जेपी आन्दोलन की उपज हूँ और आमूल-चूल परिवर्तन के साथ सम्पूर्ण क्रान्ति का हिस्सेदार रहा हूँ।वो जो मुठ्ठियाँ भींच कर सत्ता में आये थे आज चौंतीस साल बाद वही दूसरे पाले में खडे हैं और उनके ही विरुद्ध सम्पूर्ण क्रान्ति के नारे लग रहे हैं।मुझे आज,वो व्यक्तित्व जिन्हे हम जेपी कहते हैं,लगता है कि हम बरसों से उन्हे जलील कर रहे हैं।वो भी दॄश्य आजतक स्पष्ट दिखता है, जेपी का वो कमरा जहाँ के जीत के बाद ये तनाव और बहस कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा,जो कल तक देश के लिये लड़ रहे थे वो आज अपने स्वार्थ में लिप्त हो गये।और जेपी मूक शान्त सब देखते रहे।वो हॄदय विदारक दृश्य था।मुझे किसी आन्दोलन से समस्या नही बल्कि उसके परिणाम के बाद की चिन्ता होती है।जीत के बाद हम आक्रामक हो जाते हैं सहजता-सरलता लुप्त हो जाती है।वो हम कहाँ से लायेंगे?क्यूँकि कानून अपने आप में कोई महत्व नही रखता जबतक हमें उसपर विश्वास ना हो।और हमें कानून पालन करने की तमींज़ नही है।तो कोई नया कानून आने से हमारा हृदय परिवर्तित हो जायेगा,क्या ये संभव है?हम अपने आचरण में कोई बदलाव नही लाना चाहते।अब, अगर हर किसी को ब्रह्मास्त्र दे दें तो इतने अर्जुन कहाँ से लायेंगे या आयेंगे।दुर्योधन और अश्वथामा से कैसे निपटेंगे?ये सोच निराशाजनक हो सकती है पर सच को इनकार करके आशावाद को जन्म नही दे सकते।इसीलिये दिमाग सारे सवालों का जवाब मागँता है।हम,हम हैं ये सोच हमारे हर कानून की धज्जी उडा रहा है उसकी वजह सिर्फ़ संसद नेता या अधिकारी ही नहीं हैं हम भी हैं।और यही महत्वपूर्ण भी है और मैं इसी का जवाब चाहता हूँ।मै ये जवाब किसी दूसरे से नही अपने से पूछता हूँ क्यूँकि मुझे ही ये निर्धारित करना होगा कि क्या मैं इस योग्य हो गया की अब मेरे जीवन का परिप्रेक्ष देश है मेरा स्व नही।

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