Wednesday 7 December 2011

हम भ्रष्टाचार मुक्त देश क्यूँ चाहते हैं...




हम भ्रष्टाचार मुक्त देश क्यूँ चाहते हैं...
मुझे जब कहीं अभिनय करने के लिये बुलाया जाता है तो मेरा सवाल करना ही उनको नागवार गुज़रता है।अब मेरी समझ में नही आता कि अगर मुझे आप किसी काम के लिये अनुबन्धित करते हैं तो मेरी क्या जिम्मेदारेंयाँ होंगी ये तो तय करना होगा।पर यहीं से शुरु हो जाती है भ्रष्ट करने और और होने की शुरुआत।हम भ्रष्टाचार मुक्त देश क्यूँ चाहते हैं।क्या इससे हमारा जीवन आसान हो जायेगा।क्या समाज में सहजता-सरलता आ जायेगी?तो इस आधार पर जब सोचना शुरु करता हूँ तो ये पाता हूँ कि मैं अभिनय से जुड़ा हूँ, पिछले चालीस सालों से। और इक्कीस सालों से मुम्बई में प्रवास कर रहा हूँ।पर शायद किसी अन्जाने भय से सारे सवाल रुक जाते हैं।इसके बाद का सारा कार्य ’अह्म की तुष्टी’ में लगा रहता है। काम नही होता, सिर्फ़ धन का वितरण होता है।तो जिस विभाग में हम काम कर रहे हैं वहाँ आगे कुछ नही बढता है,सिर्फ़ दिन बीतता है।और शायद अपने दिन आने का इन्तज़ार करते हैं कि वो आयेगा तो हम भी राज कर सकगें।और वो दिन आता है या नही ये तो समय ही जानता है।तो हम समय का इन्तज़ार करते जीवन बिता देते हैं।करते कुछ नही हैं,जो होता है वो समय होता है, वो करता है।तो सबसे विकट सवाल यही उठता है कि हम क्या करें।तो हम सवाल करते हैं क्यंकि हमें करना है,जो भी आता है उस आधार पर हम पहले खुद को सुदृढ़ कर लेना चाहते हैं कि हम उनके काम के साथ न्याय कर सकें। पर उनके पास इसका जवाब भी नही होता,अगर होता है तो वो उसे मेरी उद्दडंता मानते हैं।फ़िर काम रुक जाता है।मैंने बात भ्रष्टाचार से शुरु की थी और कहाँ आकर अटक गया।फ़िर आगे बढ़ता हूँ और सारे सवालों का जवाब या हल खु़द खोज लेता हूँ।अचानक या यका-यक उन्हे इल्हाम होता है और वो ऐसे या वैसे करनें का इसरार या आदेश हो जाता है और काम फ़िर रुक जाता है।अब ऐसा लगने लगता है कि या तो हम काम नही जानते या कैसे काम करते हैं नही समझते।पर जिनके साथ कर लिया या हो गया वो तारीफ़ तो करते हैं पर फ़िर नही बुलाते और काम फ़िर रुक जाता है।फ़िर मुझे काम से ज्यादा धन की ज़रुरत होती है और मै भ्रष्ट होने लगता हूँ।फ़िर कभी काम तो नही रुकता, पर हम रुक जाते हैं।हमारे रुकते ही सब कुछ मशीन हो जाता है, और बाज़ार हमें जीने की कला सिखाने लगती है और हम सब बाज़ार के उत्पाद हो जाते हैं।हर कोइ बाज़ार से संचालित होने लगता है।एक दिन सब लोग साँचे में ढ़ले हुये लगने लगते हैं।एक दिन हम मर जाते हैं एक रेप्लिका की तरह।पर बाज़ार हमें वर्तमान में जीने को बाध्य करती है।हम भविष्य नही देख पाते।अगर हम भविष्य ना देखें तो संभवत: वर्तमान में विचार की ज़रुरत ही नही पडेगी।अगर विचार नही होगा तो हम अपनी जीवन की दिशा कैसे निर्धारित करेंगे? लेकिन हम बात भ्रष्टाचार की कर रहे थे और भ्रष्टाचार अभीतक खुल कर सामने नही आया है।बस मैंने हल्के से धन की मजबूरी बता कर एक मज़लूम की तरह कोने में खडे हो गये।और उसी कोने में खडे होकर उन भ्रष्टाचारीयों को गालीयाँ देते रहे और अपने भ्रष्टाचार को मज़लूमियत का जाम पहनाये इमान्दारों की पाँत बनाये खडे रहे।अब हम फ़ैसला नही कर पाते कि इमानदार है कौन, और कौन नही है। तो अब होती है शुरुआत...खोज इमान्दारों की।चारों तरफ़ विचार हैं हर किसी के पास विचार हैं,विचार ही विचार फ़ैल चुका है।कई मत हैं।पर ये पता नही चल पा रहा है कि इमान्दार है कौन? मैंने शुरुआत की थी- भ्रष्टाचार मुक्त देश क्यूँ चाहते हैं...और अपना दर्द और फ़िर एक इमानदार खोजने लगा।बाज़ार के हावी होने से लेकर मशीनी जीवन तक की बात की।जो गलत तो नहीं हैं पर उससे हम कहीं पहुँच नही पा रहे हैं।तो अंतत: ये पाया की खु़द की इमान्दारी ही खोजनी पडेगी,सिर्फ़ अपने लिये नही,पूरे देश के लिये भी।अब हम ईमान्दार हैं अपने प्रति समाज के प्रति और देश के प्रति, ये घोषित करना पडेगा सामाजिक रुप से।और हम जिम्मेदार होंगे अपने ईर्द-गिर्द के प्रति।

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