Sunday 14 October 2012

देश...

हम सरकार को बहुत कोसते हैं...क्या उस सरकार में हमारी कोई हिस्सेदारी नही है?अगर नही है तो हम उस सरकार के विरोधी हुये...विरोध की भाषा जरुरी नही कि वो देश की भाषा भी हो....तो कोई भी आंदोलन का राष्ट्रीय स्वरुप क्या होगा?...जहाँ सारे विरोधी एक स्वर में बोलें और सरकारी कर्मचारीयों की हिस्सेदारी(गुप्त) हो....मूलत: सरकारी, गैर-सरकारी कर्मचारी ही देश की आम जनता है और अभी तक वो किसी भी आंदोलन से दूर हैं... हम आंदोलन इसलिये करते हैं कि बेहतर व्यवस्था हो सके, पर सरकार व्यवस्था नही बदलती वो सिर्फ़ नीतियों को बनाने और लागू करने का आदेश देती है।...अब फ़िर व्यवस्था घूम-फ़िर कर हमारे पास आ गई, तो,अभी की सरकार की व्यवस्था तो अभी भी हमारे पास ही है...तो हम उसका इस्तेमाल क्यूँ नही करते...ये तो अब खुद सोचना पड़ेगा कि व्यवस्था है क्या और इसका इस्तेमाल कैसे करें। व्यवस्था का हम सही इस्तेमाल शायद इसलिये नही कर पाते क्यूँकि हमारे लिये "देश" तो है, पर "कैसा" देश हो ये बिल्कुल स्पष्ट नही है....ये बिलकुल वैसा है जैसे "अंधों का हाथी"। चार क्षेत्र हैं, दक्षिण कहता है मुझे कमज़ोर ना समझना, तो पूर्व कहता है मैं तुम्हारी वाट लगा दूँगा, तो पश्चिम कहता है मुझे तो कोई पसंद ही नही, तो उत्तर कहता है कोई बात नही मुझे तो राज करना है,जिसे आना है आओ.... और सारी बातों का "उत्तर" दिये बगैर उत्तर चुप रहता है... वो जानता है कि उसे सिर्फ़ सरकार चलानी है...देश नही बदलना है ना ही वो बदल सकते हैं....क्यूँकि देश सिर्फ़ जनता बदल सकती है....(जैसे सरकारें देश नही बदल सकती, वैसे ही, राजनैतिक-आंदोलन सिर्फ़ सरकारें बदल सकती हैं,देश नही)। तो देश की जनता कौन है और कहाँ है...दक्षिण, पूरब, पश्चिम, उत्तर, हिन्दु, मुस्लिम, सिख्ख, इसाई, अगडी जाति, पिछडी़ जाति, अति-पिछड़ी जाति...कहाँ तक जायें?... टुकड़ों में बटी जनता को, देश नही, सुख चाहिये... अपने देश में सुख की कल्पना ग़लत तो नही है, ये अधिकार है हमारा...पर हमारा "कर्तव्य" ? हमारा कर्तव्य, दूसरे के अधिकार की पूर्ति करता है...।यही देश है...हमारा कर्तव्य...।

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